डेमोक्रेसी बनाम मॉबो क्रेसी
इसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं क्योंकि इसका कोई चेहरा नहीं
है. हम भी चाहे तो इसे अनदेखा कर सकते हैं क्योंकि कम से कम इतिहास में हम दोषी
होने से बच जाएंगे. करना बस इतना है कि सब
जानते हुए हमें अपनी आँखें बंद कर लेनी है.
हमें दुःख भी नहीं होगा, यह भी
नहीं जान पाएँगे कि वह औरत कौन थी, उसके पीछे दौड़े आ रहे लोग कौन थे? क्या करना है हमें. वैसे भी ये मॉब लीचिंग की
घटनाएँ इतनी आम हो गयी हैं, इससे संबंधित सूचनाएं इतनी अधिक मात्रा में जमा हो गयी
हैं कि अब सूचनाएं भी बेअसर होने लगी हैं. अब हमारी भावनाएं आहत नहीं होतीं, हम
‘यूज़ टू’ हो गए हैं. हमें लगता है कि अरे ये तो वही पुरानी बात है. मीडिया के
विभिन्न माध्यमों पर बड़ी- बड़ी बहस चलेगी और फिर सब कुछ ख़त्म... लेकिन ध्यान रहे,
खरगोश के द्वारा आँखें बंद कर लेने से बिल्ली जो सामने आ रही है वो तो आयेगी ही,
उसका खतरा तो बरकरार रहेगा ही, हाँ खरगोश ये कुछ पल के लिए सोच सकता है कि वह
सुरक्षित है. आज हमारा लोकतंत्र भीड़तंत्र में तब्दील होता जा रहा है, डेमोक्रेसी,
मोबोक्रेसी बन चुकी है. समाज भीड़ में तब्दील हो चुका है, जिसका कोई स्थायी
अस्तित्व नहीं है, न कोई चेहरा है न कोई चरित्र है. कुछ ऐसी ही बेचारित्र वाली भीड़
ने बिहार के भोजपुर जिले के बिहिया क्षेत्र में अपनी घोर पौरुषता का परिचय दिया
है. एक महिला को नंगा करके, सरेबाजार दौड़ा- दौड़ा कर उसकी पिटाई करके. आखिर करें भी
क्यों नहीं, देश हमारा भीड़तंत्र में जो बदल रहा है. भीड़ ने अपने- आप ये हक ले लिया
है कि उसे जो पसंद नहीं वो अपने दंगाई तरीके से उसका विरोध करेगी ही. सचमुच स्थिति
बहुत भयावह है, सोचनीय है. मॉब लिंचिंग इस समय का सच है, नई पीढ़ी दंगाइयों के रूप
में तैयार हो रही है, भीड़ बन रही है. ये जो नई पौध तैयार हो रही है, यह भीड़ सिर्फ
वह भीड़ नहीं, जिसका कोई चेहरा नहीं है, यह रोबोट की तरह तैयार की गई भीड़ है,
सांप्रदायिक आदि चीजों की बकायदे प्रोग्रामिंग की गयी है इसके भीतर, बस एक बटन
स्विच ऑन की जरूरत है. इस भीड़ का रूप ‘रोबो रिपब्लिक’ का बन चुका है, जहर का ईंधन
इन्हें दिया जा रहा है. बिहिया में घटी इस शर्मनाक घटना में देखें और सोचें कि जो
भीड़ में ये तथाकथित पुरुष हैं, इसकी उम्र क्या है? बहुत सारे लोग तो बिल्कुल
नवयुवक हैं. दरअसल पूरा घटनाक्रम यह है कि विमलेश साहू की लाश रेलवे ट्रैक पर पायी
जाती है, वह रेलवे ट्रैक जो उस महिला के मुहल्ले से हो कर गुजरता है. अब चूँकि भीड़
को महिला पर विमलेश की हत्या का शक है, इसलिए उसके साथ इस घटिया और शर्मनाक घटना
को अंजाम दिया जाता है. भीड़ में कोई जिम्मेवार नहीं ठहरता, कोई ज़वाबदेही नहीं
होती, इसलिए आज मॉब लिंचिंग ऐसे कुत्सित मानसिकता वालों का हथियार बन चुका है. भीड़
के रूप में वे किसी के रोजगार को आग के हवाले कर सकते हैं, किसी के बच्चे का सिर
फोड़ सकते हैं, वाहन जला सकते हैं और तो और ये किसी की अस्मत को तार- तार भी कर
सकते हैं. ऐसे ही कुछ दिन बीत जाएंगे, लोग
इस घटना पर बहस करना छोड़ देंगे, अंततः इस घटना को भूल जाएंगे. लेकिन विश्वगुरु कहे
जाने वाले भारत के पीछे ये नंगी औरत हमेशा जवाब और न्याय के पीछे दौड़ती रहेगी. हालाँकि
वो फ़्लैश बैक में चली जाएगी, किसी को दिखेगी भी नहीं शायद, मगर फिर भी दौड़ती
रहेगी.
आज दंगाइयों से भरे इस देश में भीड़तंत्र राज कर रहा है. वो
भीड़ जो एक पल में किसी भी माँ या बहन को औरत बना देती है. सच्चाई भी है कितना भी
समाज दुहाई दे ले, औरतों को रिश्ते में बाद में पहले एक औरत के रूप में देखा जाता
है. यही नजरिया पुरुषों को मर्द जो बनाती है, शायद. हमारे विश्वगुरु भारत ने
इन्हें बहुत सारे, भर- भर के अधिकार भी दिए हैं. पति को गुस्सा आता है तो उसे
पत्नी को हत्या करने का हक है, प्रेमी के प्रेम को न मानने वाली उस लड़की को मार
सकने की हक़ है. भारत में मर्दों को कितनी छूट है वो भीड़ बन कर किसी औरत को
सरेबाजार नंगा कर सकते हैं, पति बन कर पत्नी पर शासन कर सकते हैं और न मानने पर
मौत का इतिहास भी लिख सकते हैं, किसी से प्रेम करें और उसकी बात वह न माने तो उसके
जीवन का अंत कर सकते हैं, जो लड़की उन्हें पसंद आए उसके साथ वो खुलेआम छेड़खानी कर
सकते हैं, वो तय कर सकते हैं कि औरतें क्या पहने कि वे (पुरुष) नियंत्रण में रहें
नहीं तो मन बहकेगा तब वे छेड़खानी करेंगे ही... आज हमारे दौर का सबसे कटु सत्य है कि लोग
लोकतंत्र में आस्था न रख कर भीड़तंत्र में आस्था रखने लगेहैं , जो सच में सोचनीय
है.
अब बात करते हैं तस्वीर के दूसरे पक्ष की, यानी औरतों की.
भारत में औरतों के दिमाग में बहुत जबरदस्त तरीके से बिठाया गया है कि वो देवी हैं
और वे तो पूजनीय हैं, वो ये मानेंगी ( और नहीं तो मनवाया जाएगा) कि ऐसी घटनाएँ तो
कभी- कभी होती ही रहेंगी, क्योंकि उस औरत ने करनी ही ऐसी की है. हम तो सभ्य
महिलाएं हैं हम भला आवाज कैसे उठाएंगी, हम तो एक आदर्श भारतीय नारी हैं, पचड़े में कौन पड़े. अपने तथाकथित ‘सेफ जोन’ से बाहर
कौन निकले? यहीं नहीं जरूरत होगी तो हम कुकर्मी पति को बचाएंगे, भाई चाहे किसी की बहन की इज्जत पर हाथ डाले, हम उसकी इज्जत ढक
देंगे, पिता चाहे लाख एय्यासी करे, एक
जिम्मेदार बेटी की तरह हम समाज के सामने चीख- चीख कर उसके बचाव की दुहाई देंगे....
अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया से ही दोषियों
को सजा मिल सकती है.
प्रतिरोध के स्वर क्या घर से नहीं उठ सकते हैं? सामाजिक बहिष्कार की शुरुआत क्या
घर से नहीं हो सकती? मनुष्य से इंसान बनने की शुरुआत घर से ही होती है, तो क्या
दंड का प्रावधान घर से शुरू नहीं किया जा सकता? इसलिए बहिष्कार की शुरुआत घर से हो
तो ज्यादा असरदार होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. नहीं तो निश्चित रूप से
भीडतंत्र के त्त्थाकथित न्याय की या न पहली घटना है न आखिरी कही जा सकती है, वैसे
भी अब तो देश की आने वाली पीढ़ी दंगाइयों के रूप में तब्दील हो भी रही है, तो ऐसे
दंगे- फसाद तो होते रहेंगे. न्याय- व्यवस्था भी है, लेकिन वह मूकदर्शक है क्योंकि
उसे भी इसका अभ्यास हो चुका है. पुलिस बस वहाँ होने भर को है कुछ रोकने को नहीं. भीड़
‘रोबो रिपब्लिक’ बन कर न्याय करेगी, क्योंकि उसको न्याय करने का सर्टिफिकेट मिल
चुका है. इसलिए न पुलिस, न अदालत न दलील कुछ भी काम न आएगी. संभलने की जरूरत है, क्योंकि डेमोक्रेसी नहीं अब यहाँ मोबोक्रेसी है
लिंचोक्रेसी है. नहीं चेते तो ऐसे ही चलता रहेगा...