Sunday, September 16, 2018

डेमोक्रेसी बनाम मॉबो क्रेसी


इसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं क्योंकि इसका कोई चेहरा नहीं है. हम भी चाहे तो इसे अनदेखा कर सकते हैं क्योंकि कम से कम इतिहास में हम दोषी होने से बच जाएंगे. करना बस इतना है  कि सब जानते हुए हमें अपनी आँखें बंद कर लेनी है.  हमें दुःख भी नहीं होगा,  यह भी नहीं जान पाएँगे कि वह औरत कौन थी, उसके पीछे दौड़े आ रहे लोग कौन थे?  क्या करना है हमें. वैसे भी ये मॉब लीचिंग की घटनाएँ इतनी आम हो गयी हैं, इससे संबंधित सूचनाएं इतनी अधिक मात्रा में जमा हो गयी हैं कि अब सूचनाएं भी बेअसर होने लगी हैं. अब हमारी भावनाएं आहत नहीं होतीं, हम ‘यूज़ टू’ हो गए हैं. हमें लगता है कि अरे ये तो वही पुरानी बात है. मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर बड़ी- बड़ी बहस चलेगी और फिर सब कुछ ख़त्म... लेकिन ध्यान रहे, खरगोश के द्वारा आँखें बंद कर लेने से बिल्ली जो सामने आ रही है वो तो आयेगी ही, उसका खतरा तो बरकरार रहेगा ही, हाँ खरगोश ये कुछ पल के लिए सोच सकता है कि वह सुरक्षित है. आज हमारा लोकतंत्र भीड़तंत्र में तब्दील होता जा रहा है, डेमोक्रेसी, मोबोक्रेसी बन चुकी है. समाज भीड़ में तब्दील हो चुका है, जिसका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है, न कोई चेहरा है न कोई चरित्र है. कुछ ऐसी ही बेचारित्र वाली भीड़ ने बिहार के भोजपुर जिले के बिहिया क्षेत्र में अपनी घोर पौरुषता का परिचय दिया है. एक महिला को नंगा करके, सरेबाजार दौड़ा- दौड़ा कर उसकी पिटाई करके. आखिर करें भी क्यों नहीं, देश हमारा भीड़तंत्र में जो बदल रहा है. भीड़ ने अपने- आप ये हक ले लिया है कि उसे जो पसंद नहीं वो अपने दंगाई तरीके से उसका विरोध करेगी ही. सचमुच स्थिति बहुत भयावह है, सोचनीय है. मॉब लिंचिंग इस समय का सच है, नई पीढ़ी दंगाइयों के रूप में तैयार हो रही है, भीड़ बन रही है. ये जो नई पौध तैयार हो रही है, यह भीड़ सिर्फ वह भीड़ नहीं, जिसका कोई चेहरा नहीं है, यह रोबोट की तरह तैयार की गई भीड़ है, सांप्रदायिक आदि चीजों की बकायदे प्रोग्रामिंग की गयी है इसके भीतर, बस एक बटन स्विच ऑन की जरूरत है. इस भीड़ का रूप ‘रोबो रिपब्लिक’ का बन चुका है, जहर का ईंधन इन्हें दिया जा रहा है. बिहिया में घटी इस शर्मनाक घटना में देखें और सोचें कि जो भीड़ में ये तथाकथित पुरुष हैं, इसकी उम्र क्या है? बहुत सारे लोग तो बिल्कुल नवयुवक हैं. दरअसल पूरा घटनाक्रम यह है कि विमलेश साहू की लाश रेलवे ट्रैक पर पायी जाती है, वह रेलवे ट्रैक जो उस महिला के मुहल्ले से हो कर गुजरता है. अब चूँकि भीड़ को महिला पर विमलेश की हत्या का शक है, इसलिए उसके साथ इस घटिया और शर्मनाक घटना को अंजाम दिया जाता है. भीड़ में कोई जिम्मेवार नहीं ठहरता, कोई ज़वाबदेही नहीं होती, इसलिए आज मॉब लिंचिंग ऐसे कुत्सित मानसिकता वालों का हथियार बन चुका है. भीड़ के रूप में वे किसी के रोजगार को आग के हवाले कर सकते हैं, किसी के बच्चे का सिर फोड़ सकते हैं, वाहन जला सकते हैं और तो और ये किसी की अस्मत को तार- तार भी कर सकते हैं.  ऐसे ही कुछ दिन बीत जाएंगे, लोग इस घटना पर बहस करना छोड़ देंगे, अंततः इस घटना को भूल जाएंगे. लेकिन विश्वगुरु कहे जाने वाले भारत के पीछे ये नंगी औरत हमेशा जवाब और न्याय के पीछे दौड़ती रहेगी. हालाँकि वो फ़्लैश बैक में चली जाएगी, किसी को दिखेगी भी नहीं शायद, मगर फिर भी दौड़ती रहेगी.
आज दंगाइयों से भरे इस देश में भीड़तंत्र राज कर रहा है. वो भीड़ जो एक पल में किसी भी माँ या बहन को औरत बना देती है. सच्चाई भी है कितना भी समाज दुहाई दे ले, औरतों को रिश्ते में बाद में पहले एक औरत के रूप में देखा जाता है. यही नजरिया पुरुषों को मर्द जो बनाती है, शायद. हमारे विश्वगुरु भारत ने इन्हें बहुत सारे, भर- भर के अधिकार भी दिए हैं. पति को गुस्सा आता है तो उसे पत्नी को हत्या करने का हक है, प्रेमी के प्रेम को न मानने वाली उस लड़की को मार सकने की हक़ है. भारत में मर्दों को कितनी छूट है वो भीड़ बन कर किसी औरत को सरेबाजार नंगा कर सकते हैं, पति बन कर पत्नी पर शासन कर सकते हैं और न मानने पर मौत का इतिहास भी लिख सकते हैं, किसी से प्रेम करें और उसकी बात वह न माने तो उसके जीवन का अंत कर सकते हैं, जो लड़की उन्हें पसंद आए उसके साथ वो खुलेआम छेड़खानी कर सकते हैं, वो तय कर सकते हैं कि औरतें क्या पहने कि वे (पुरुष) नियंत्रण में रहें नहीं तो मन बहकेगा तब वे छेड़खानी करेंगे ही...  आज हमारे दौर का सबसे कटु सत्य है कि लोग लोकतंत्र में आस्था न रख कर भीड़तंत्र में आस्था रखने लगेहैं , जो सच में सोचनीय है.
अब बात करते हैं तस्वीर के दूसरे पक्ष की, यानी औरतों की. भारत में औरतों के दिमाग में बहुत जबरदस्त तरीके से बिठाया गया है कि वो देवी हैं और वे तो पूजनीय हैं, वो ये मानेंगी ( और नहीं तो मनवाया जाएगा) कि ऐसी घटनाएँ तो कभी- कभी होती ही रहेंगी, क्योंकि उस औरत ने करनी ही ऐसी की है. हम तो सभ्य महिलाएं हैं हम भला आवाज कैसे उठाएंगी, हम तो एक आदर्श भारतीय नारी हैं,  पचड़े में कौन पड़े. अपने तथाकथित ‘सेफ जोन’ से बाहर कौन निकले? यहीं नहीं जरूरत होगी तो हम कुकर्मी पति को बचाएंगे, भाई चाहे किसी  की बहन की इज्जत पर हाथ डाले, हम उसकी इज्जत ढक देंगे,  पिता चाहे लाख एय्यासी करे, एक जिम्मेदार बेटी की तरह हम समाज के सामने चीख- चीख कर उसके बचाव की दुहाई देंगे.... अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया से ही दोषियों
को सजा मिल सकती है. प्रतिरोध के स्वर क्या घर से नहीं उठ सकते हैं? सामाजिक बहिष्कार की शुरुआत क्या घर से नहीं हो सकती? मनुष्य से इंसान बनने की शुरुआत घर से ही होती है, तो क्या दंड का प्रावधान घर से शुरू नहीं किया जा सकता? इसलिए बहिष्कार की शुरुआत घर से हो तो ज्यादा असरदार होगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. नहीं तो निश्चित रूप से भीडतंत्र के त्त्थाकथित न्याय की या न पहली घटना है न आखिरी कही जा सकती है, वैसे भी अब तो देश की आने वाली पीढ़ी दंगाइयों के रूप में तब्दील हो भी रही है, तो ऐसे दंगे- फसाद तो होते रहेंगे. न्याय- व्यवस्था भी है, लेकिन वह मूकदर्शक है क्योंकि उसे भी इसका अभ्यास हो चुका है. पुलिस बस वहाँ होने भर को है कुछ रोकने को नहीं. भीड़ ‘रोबो रिपब्लिक’ बन कर न्याय करेगी, क्योंकि उसको न्याय करने का सर्टिफिकेट मिल चुका है. इसलिए न पुलिस, न अदालत न दलील कुछ भी काम न आएगी. संभलने की जरूरत है,  क्योंकि डेमोक्रेसी नहीं अब यहाँ मोबोक्रेसी है लिंचोक्रेसी है. नहीं चेते तो ऐसे ही चलता रहेगा...

स्त्री खिलौना या खिलौना स्त्री




कितना अच्छा हो वो न अपना हक मांगे, न अपनी पहचान बनाने की कोशिश करे, न अपना स्पेस, न अपनी खुशी न अपना जीवन। कोई भी मांग होठों पे न आए। आए तो बस अपने साथी के लिए प्यार और न मिटने वाली कभी मुस्कान। भले ही वह मुस्कान उसकी अपनी खुशी के एवज में न हो। वह अपने साथी के मूड के हिसाब से हँसेगी और रोएगी भी। जीवन के साथ उसकी सांस भी साथी की गुलाम होगी। यहीं नहीं देखने मे गोरी, सुंदर, भरी-पूरी और पूरी तरह से आज्ञाकारी। पितृसत्तात्मक समाज में ऐसी ही औरतें सरहनीय हैं और एडयोंरेबल हैं। पुरुषों की पसंद से ही उनके रूप को सर्टिफिकेट दिया जाता है। इंसान के दायरे में  शायद ही उन्हें लेकर सोचा जाता है उनको। जी हाँ, बात स्त्री की हो रही है। उस स्त्री की जिसके बारे में सिनेमा ने भी चीख- चीख कर कहा है कि 'स्त्री देह की नहीं बल्कि प्रेम, सम्मान और इज्जत की भूखी है'| यहाँ सिर्फ सिनेमा की बात नहीं, स्त्री मन को उभारने की कोशिश है। अब जब समाज स्त्री को एक कमोडिटी के रूप मे देख रहा है तब भला बाज़ार उस सोच को भुनाने में पीछे क्यों रहे? अब तक तो शारीरिक सुख देने वाले खिलौने ही मार्केट मे थे, अब पूरी- की- पूरी औरत ही मार्केट मे तैयार है। कम पैसे वाले सेक्स एजेंट बनी औरतों से हॉट बातें बोल-सुन  कर काम चला रहे हैं या थे भी, उच्च वर्ग साक्षात अपने मनोरंजन को  अपने हाथों मे रखेगा, यानि फूल कमांड
चीनी कंपनी डब्‍ल्यूएमडॉल सेक्स डॉल बनाती है, मार्केट में अपने प्रॉडक्ट को लॉंच किया है।.कंपनी के डायरेक्‍टर दांग्यू यांग ने खुद अपने साक्षात्कार मे स्वीकारा है कि, “ये सेक्‍स डॉल पत्‍नी और गर्लफ्रेंड की जगह ले सकती है। पुरुषवादी सोच वाले तथाकथित मर्द हाड़- मांस की जीती- जागती औरतों से अपने अनुरूप इशारे पर नाचने वाली गुड़िया बनाना चाहते हैं, उनके लिए सामग्री कंपनी ने माल तैयार कर दिया है। बस बैटरी चार्ज करना है और एक बटन पर सब कुछ उनके अनुरूप। सिर्फ और सिर्फ प्यार देने को तत्पर। क्योंकि उसके पास अपनी भावनाएं तो होंगी ही नहीं। वैसे भी स्त्री की भावनाओं का करना भी क्या है? इस चीनी गुड़िया की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार मे 2 लाख रुपये है। इस गुड़िया की खासियत है कि वह न सवाल करेगी और न बराबरी का हक़ मांगेगी। इसके अलावा वह सब करेगी, जो मर्द उसके साथ करना और करवाना चाहेंगे। ये चीनी गुड़िया दिखने में असली औरत जैसी लगती है. उसका चेहरा, बाल, नाखून, हाथ, पैर और चिकनी त्‍वचा है। वो स्त्रीवादी भी नहीं है, न उसके नखरे उठाने हैं, न ही ताने सुनने हैं। इसलिए अब पुरुषवादी सोच वाले समाज को न तो बेकाबू औरतों पर खाप पंचायत बिठाने की जरूरत होगी न फतबा जारी करने की ड्यूटी और न ही बलात्कार तेजाब फेंकने जैसे (कु) कर्म करने पड़ेंगे। अभी कुछ दिन पहले की घटना हरियाणा की है, जिसमें सीबीएसीई टॉपर के साथ गैंगरेप की घटना घटी। कई कारणों के साथ उसका टॉपर होना भी शामिल है। जो उन लड़कों को रास न आया। सोचनीय है, समाज किस ओर जा रहा है। सेक्स का बाज़ार जिसे सिर्फ देह का बाज़ार कहा जाए तो आंकड़े चौकाने वाले हैं।
हैवोकस्कोप रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक देह व्यापार में भारत को भी बड़ा बाजार बताया गया है।. इंडोनेशिया में देह का कारोबार 2.25 अरब डॉलर का है, यूनिसेफ के मुताबिक इंडोनेशिया में देह व्यापार से जुड़ी 30 फीसदी युवतियां नाबालिग हैं। स्विटजरलैंड 3.5 अरब डॉलर का है। तुर्की में देह व्यापार कानूनी होने के बावजूद 4 अरब डॉलर का है। फिलीपींस 6 अरब डॉलर का कारोबार है। थाईलैंड 6.4 अरब डॉलर का कारोबार करता है। यह देश भी सेक्स टूरिज्म के लिए मशहूर है। थाइलैंड में देह व्यापार कानूनी है। यहां खास जगहों पर ही देह व्यापार की अनुमति है। स्थानीय अधिकारी यौनकर्मियों की रक्षा भी करते हैं। कहा जाता है कि वियतनाम युद्ध के बाद से ही थाइलैंड सेक्स टूरिज्म के लिए मशहूर हुआ। भारत में सेक्स कारोबार 8.4 अरब डॉलर का है। दक्षिण कोरिया 12 अरब डॉलर और अमेरिका 14.6 अरब डॉलर का सेक्स कारोबार है। अमेरिका में आमतौर पर देह व्यापार कानूनी है। हालांकि नेवाडा राज्य के कुछ इलाकों में यह गैरकानूनी है। अमेरिका में देह व्यापार के लिए आधिकारिक तौर पर आवेदन किया जा सकता है। जर्मनी 18 अरब डॉलर है। अनुमान के मुताबिक जर्मनी में 40,000 सेक्स वर्कर हैं। यह कानूनी है लेकिन सामाजिक दशा और अधिकारों से जुड़े कई नियम हैं। जापान 24 अरब डॉलर का है। स्पेन 26.5 अरब डॉलर का है। और अंत में  चीन में 73 अरब डॉलर के साथ दुनिया का सबसे बड़ा यौन कारोबार इस देश में होता है। यहां देह व्यापार गैरकानूनी है।
ये आंकड़े तो प्रत्यक्ष रूप से स्त्री को सिर्फ देह के रूप में भोगने और परोक्ष रूप से सेक्स की जरूरतों को बताते हैं, जिसे बाज़ार मुहैया कराता है। मगर उस मानसिकता का क्या जो जीते- जागते इंसान को खिलौना समझता हो और फिर खिलौने को इंसान के रूप मे देखने की कोशिश करे? गंभीर और सोचनीय विषय है। चिंतन की आवश्यकता है!!

Friday, December 1, 2017



मत जा प्रश्नों के दायरे से बाहर 

सोच मत वहां से आगे जहां हम न सोचते हो
मत बोल ऐसे  बोल जिसे मेरे कान मेरे ना चाहते हो
हम धड़ के ऊपर की विरासत रखते हैं
तुम्हारी पहचान धड़ के नीचे की है
जीवन तुम्हारा कुछ नहीं मैं हूं तेरा सारथी
मत जा प्रश्नों के दायरे से बाहर ऐ गार्गी
 जब भी दायरा तोड़ा है तुमने
हमने तुम्हारा ग्रास किया
क्या अब भी कुछ बोलने को है
जब हमने तुम्हारा परिहास किया
हर युग में है याज्ञवल्क
छिनेगा फिर से तुम्हारा तर्क एक बारगी
मत जा प्रश्नों के दायरे से बाहर ऐ गार्गी
 तुम हमारी सिर्फ सहचरी बनो
समर्पण की मूर्ति व आज्ञाकारी बनो
'हम' पर ही टिके रहो
'मैं' का सवाल मत बनो
मत ललकारो हमारी सत्ता को
कहानी एक और रच जायेगी संहार की
मत जा प्रश्नों के दायरे से बाहर ऐ गार्गी
(विजया)
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सोशल मीडिया की भाषा में पाराडाइम शिफ्ट

सोशल मीडिया ‘लोगों के द्वारा लोगों के लिए’ के कांसेप्ट को लेकर उपस्थित हुआ है। चूँकि इस मीडिया के केंद्र में आम लोग या जनता थी, इसलिए इसकी भाषा भी आम लोगों की भाषा को साथ लेकर चली।  इससे हिंदी भाषा को बहुत बल मिला। भारत जैसे देश में जहाँ मुट्ठी भर लोगों का अंग्रेजी पर वर्चस्व है, वहाँ संख्या बहुल की दृष्टि से हिंदी भाषा को अपना परचम लहराने का मौका मिला। और इस तरह सोशल मीडिया की भाषा में हिंदी की बढ़त लगातार जारी रही। पिछले कुछ वर्ष पहले तक विश्व में 80 करोड़ लोग हिंदी समझते, 50 करोड़ बोलते और 35 करोड़ लिखते थे, लेकिन सोशल मीडिया पर हिंदी के बढ़ते इस्तेमाल के चलते, अब अंग्रेजी उपयोगकर्ताओं में भी हिंदी का आकर्षण बढ़ा है और इन आंकड़ों में भी तेजी से वृद्धि हुई है। वर्तमान में भारत, दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा इंटरनेट उपयोगकर्ता है, जिसका श्रेय हिंदी  भाषा को भी जाता है। सोशल मीडिया पर हिंदी भाषा के विस्तार की गति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अप्रैल 2015 तक देश में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 14.3 करोड़ रही, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ताओं की संख्या पिछले एक साल में 100 प्रतिशत तक बढ़कर ढाई करोड़ पहुंच गई जबकि शहरी इलाकों में यह संख्या 35 प्रतिशत बढ़कर 11.8 करोड़ रही। सबसे खास बात यह है, कि न केवल नई पीढ़ी बल्कि अंग्रेजीदा लोग भी सोशल मीडिया पर हिंदी में लिख रहे हैं। लेकिन इन सब बातों में एक सवाल छिपा है, वह यह कि क्या यह वही हिंदी है, जिसमें हम लिखते- पढ़ते आए हैं? तो इसका जवाब है नहीं। क्योंकि सोशल मीडिया पर लिखी जाने वाली हिंदी अलग है।  कह सकते हैं कि हिंदी ने एक नया आवरण ओढ़ लिया है। और हिंदी ही क्यों अंग्रेजी पर तो इसका प्रभाव कुछ ज्यादा ही हैइस आवरण ने भाषा का ऐसा भेष बदला है कि अगर कहा जाए कि भाषा में पाराडाइम शिफ्ट आ गया है तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। सवाल यह है कि आखिर पाराडाइम शिफ्ट है क्या?
पाराडाइम शिफ्ट के मायने हैं ‘क्रांतिकारी बदलाव’। भाषा में आए इस क्रांतिकारी बदलाव यानी पाराडाइम शिफ्ट को कनाडा के ओ.आई.एस.ई. (O.I.S.E.) टोरोंटो विश्वविद्यालय में शिक्षा में समाजशास्त्र के प्रोफेसर, एम.एल. हांडा ने सामाजिक विज्ञानों के परिप्रेक्ष्य में रूपावली के एक सिद्धांत को विकसित किया है। उन्होंने शिफ्टिंगके अर्थ को उनके अनुसार परिभाषित किया है और सोशल शिफ्टिंगका दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने इसके मूल अंश की पहचान की है। ये पाराडाइम शिफ्टिंगके नाम से जानी जाने वाली एक लोकप्रिय प्रक्रिया है। इस संदर्भ में वे ऐसी सामाजिक परिस्थितियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिनसे ऐसा बदलाव होता है। दरअसल पाराडाइम शिफ्ट की अवधारणा सबसे पहले थामस कुह्न ने अपनी पुस्तकद स्ट्रक्चर ऑफ साइंटिफिक रिवोलुशनस में वैज्ञानिक क्रांति का नाम दिया। कुह्न के अनुसार, वैज्ञानिक क्रांति तब होती है जब वैज्ञानिकों का सामना ऐसी असामान्यताओं से होता है, जो सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत उस रूपांतरण के आधार पर समझाई नहीं जा सकती हैं, जिसकी सीमा में रह कर अब तक की वैज्ञानिक तरक्की की गई हो। यह रूपांतरण, कुह्न के विचार में केवल वर्तमान सिद्धांत नहीं है बल्कि एक संपूर्ण वैश्विक नजरिया है, जिसमें वह व उसमें निहित प्रभाव मौजूद होते हैं। यह वैज्ञानिकों द्वारा अपने चारों ओर पहचानी गई ज्ञान की दृश्यावली की विशेषताओं पर आधारित है। जिस सोशल शिफ्टिंग की बात कुह्न ने की है उसकी मुख्य भूमिका में संचार के कारक ही हैं। तो क्यों न यह पड़ताल की जाए कि संचार के क्षेत्र में पाराडाइम शिफ्ट के कारक या कारक कौन से हैं? जब हम इब बातों की तह तक जायेंगे तब सोशल मीडिया को पाते हैं। यानी सोशल शिफ्टिंग, संचार, सोशल मीडिया और उसके बाद उसकी भाषा। यह क्रम सही बैठता है। 
अब पाराडाइम शिफ्ट को कुछ उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है। जैसे- अंधकार युग से पुनर्जागरण की ओर, द्वितीय विश्वयुद्ध की दुनिया, सोवियत संघ का विघटन आदि। संचार की दृष्टि से देखें तो 21वीं सदी के इस दौर में हमलोग संचार के एक बुनियादी बदलाव से गुजर रहे हैं। इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया जैसे- फेसबुक, ट्विटर ने लोगों के बीच एक नये तरीके का संचार शुरू किया है। सोशल मीडिया की भाषा को इस संदर्भ के तहत बेहतर समझा जा सकता है। समाज में हमारी भूमिका भिन्न स्थितियों में अलग- अलग होती है। किसी विशिष्ट समूह या सामाजिक स्थिति में हम व्यवहार करते हैं या विशेष भूमिका का निर्वहन करते हैं। इन भिन्न भूमिकाओं में एक चीज जो निरंतर चलती है, वह है भाषा। इसी से हम अपने समाज को देखते और समझते हैं। हम समाज में अलग- अलग परिस्थिति, स्थान, समय में अलग- अलग भाषा का प्रयोग करते हैं। आज संचार- तकनीक की भाषा को हमें उसी तकनीकी उपकरण के संदर्भ में समझना होगा। हमें यह समझना होगा कि हमें ऐसी भाषा का इस्तेमाल इसी उपकरण के संदर्भ में करते हैं न कि समाज के व्यापक परिवेश या संदर्भ में। हालांकि सोशल मीडिया की भाषा ने समाज की भाषा में बदलाव का काम शुरू तो कर ही दिया है। सारा मामला ‘गिव एंड टेक’ का है। सोशल मीडिया पर भी जो भाषा लिखी जा रही है उसे समाज का एक तबका (नेटिजन) ही लिख रहा है, और फिर उसी भाषा का विस्तार समाज में हो रहा है। और इस लेनदेन की प्रक्रिया का परिणाम यह है कि भाषा में क्रांतिकारी बदलाव की दस्तक शुरू हो चुकी है। दस्तक इसलिए क्योंकि यह बदलाव की शुरुआत है, यह लगातार हर दिन जारी है। समाजशास्त्री इरवीन गॉफमैन ने अपनी ‘फेस थ्योरी’ में बताया कि जब हम समाज में दूसरों से बातचीत करते हैं तो इस बात का ध्यान रखते हैं कि जिस भाषा का  हम इस्तेमाल करेंगे लोग हमें उसी रूप में लेंगे और हमारी वैसी ही पहचान बनेगी। लेकिन सोशल मीडिया में भाषा बहुत हद तक तकनीकी पक्ष द्वारा भी निर्देशित होती है साथ ही कहीं-न- कहीं ‘फेस थ्योरी’ भी काम कर रही होती है। भारतीय भाषा ख़ास कर हिंदी के संदर्भ में हम बात करें तो  आज सोशल मीडिया की नीव पर निर्मित ग्लोबल गाँव जिसकी कोई परिभाषित सीमा नहीं है, हिंदी भाषा का विस्तार करने में सक्षम है यही वजह है कि भाषा में जो पाराडाइम शिफ्ट के कारक हैं उनमें संक्षिप्तीकरण, जिसमें इन्फोपिक्स, एक्रोनियम जैसे LOL, ALS (Age, location, sex) आदि का प्रयोग। इमोटिकाउंस( इमोशंस+ आइकन ), अनौपचारिक वर्तनी उच्चारण के अनुरूप ( R u cm) मतलब are you come आदि. स्वर (vowels) का गायब होना जैसे But के bt, night के लिए n8 लिखना। इसी के तहत वाक्यों का संक्षिप्तीकरण जैसे OMG (oh my god) आदि।
 पहले ही कहा गया है कि भाषा के बदलाव में तकनीकी पक्ष और फेस थ्योरी दोनों काम करते हैं. तकनीक और हिंदी के संबंधों पर अगर बात करें तो 80 के दशक में कंप्यूटर की दुनिया में हिंदी भाषा ने डिस्क ऑपरेटिंग सिस्टम (डॉस) के जमाने में अक्षरशब्दरत्न आदि जैसे वर्ड प्रोसैसरों के रूप में कदम रखाबाद में विण्डोज़ का पदार्पण होने पर 8-बिट ऑस्की फॉण्ट जैसे कृतिदेवचाणक्य आदि के द्वारा वर्ड प्रोसैसिंगडीटीपी तथा ग्राफिक्स अनुप्रयोगों में हिंदी भाषा में मुद्रण संभव हुआलेकिन तब हिंदी भाषा केवल मुद्रण के काम तक ही सीमित रहीगूगल ने 2007 में अपने हिंदी भाषा अनुवादक का प्रारंभ किया और इसके बाद यूनिकोड फॉण्ट का विकास हुआ जिसको माइक्रोसॉफ्ट के विण्डोज़ ऑपरेटिंग सिस्टम में विण्डोज़ 2000 का समर्थन मिलाइस तरह हिंदी भाषा का टेक्नोलॉजी की दुनिया में विस्तार हुआसोशल मीडिया पर हिंदी भाषा के विकास ने भारतीयों को सोशल नेटवर्किंग साइट्स की ओर आकर्षित किया है आज फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, व्हाटस एप्प या कोई अन्य नेटवर्किंग साइट सभी पर हिंदी भाषा की सुविधा उपलब्ध हैहिंदी भाषा के कंप्यूटरीकरण के बाद सोशल मीडिया प्रयोगकर्ताओं की संख्या लगातार बढ़ रही हैआज भारत में 2000 लाख से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं गूगल इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 2018 तक लगभग आधा देश इंटरनेट के माध्यम से जुड़ जाएगा। अब जब तब देश का इतना बड़ा तबका या भाग सोशल मीडिया से जुड़ा है तब समाज में चलने वाली भाषा पर इसका असर न पड़े यह संभव नहीं है
इस तरह सोशल मीडिया ने भाषा जो पाराडाइम शिफ्ट किया है, उसकी चपेट में मुख्य रूप से अंग्रेजी व हिंदी दोनों ही हैं, फिलहाल आज के संदर्भ में तो कहा जा सकता है। लेकिन आने वाले समय में हिंदी (मानक) इस प्रभाव से कितनी अछूती रहेगी, यह कहना मुश्किल होगा। 

विजया सिंह, रिसर्च स्कॉलर, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा


Thursday, July 14, 2011

baki hai aaj bhi zamini kalakar

us din mai roz ki tarah hi assignment per gai thi. kalidas rangalaya me natak hona tha bhikhari thakur ka videsiya. , man me lalak thi ki kisi tarah natak ko dekhu. apne editor se kaha bhi tha ki mai ise purana kalakaro aur naye kalakaro se compair karke likhungi. per jaise hi natak shuru hua meri sari ki sari soch dhari ki dhari rah gai. kyoki natak ko perform krne wale jyadatar kalakaro me we kalakar the jinhone bhikhari thakur ke sath kaam kiya tha. budhi umra me aisa samrpan ki naye kalakar bhi sharma jae. natak me wahi parmprikta ki tazgi thi. sare kalakar male person the even mahilao ke kirdar ko bhi we pusush kalakar hi nibha rahe the. ramchandra manjhi jb pyari sundari ke rup me mach per utre tb dailog aaya bhojpuri me, batohi hamar piya bhaile bidesiya. itna kahna tha ki pura hall taliyon se gunj pada. yahi nahi ghunghat ke pichhe se adhkhule chehre ki vedna ki jhalak bhi itna spast thi mano us wakt sach me koi virah ki mari stri ho jiska pati na sirf bahar kamane chala gaya ho blki ek parai stri ke moh me fansh gaya ho. yahi nahi jitne bhi mahila kalakaro ke patra gade gaye sbko un purush kalakaro ne bakhubi nibhaya. iske alawa jo gane wale the unka to kya kahna. sautin se kahe naina ladwle re bidesiya. virah ke ek ek kan jaise swro se fut rahe the adbhut chhan tha wah chaha bahut kuchh likhu un kalakaro per. us saili per jisme sirf ladko ko hi kaam diya jata hai aur fir puri tarah samrpan ka wh bhav jisme kalakar dube nazar aae, per afsos us din akhabar me jagah hi kam thi so bs khabar matra lag gai, lekin fr bhi mujhe is baat ki khushi thi ki kam se kam sachche kalakaro ko dekh to rahi hu. mil to liya...

Wednesday, November 10, 2010

आखिर हम भी इन्सान हैं


कभी - कभी जिंदगी में ऐसी सचचाई से रु-ब-रु होना पड़ता है कि छोटे से एक पल में हम बहुत कुछ सीख लेते हैं। सच ही कहा गया है किसी के लिए सजा तो किसी के लिए मज़ा होती है ये ज़िन्दगी। ये उनकी कहानी है जो सचमुच में हमआप कि तरह होते हुए भी काफी अलग है हमसे। काम का प्रेशर था सो सोचा कुछ अलग काम किया जाय, बस मैंने हिज़ड़ो पर स्टोरी करने की सोची। पहले तो थोडा डर लगा कि पता नहीं कैसे वयव्हार करेगे वे सभी। दो दिन तो लाइन अप करने में लग गए। खैर हमारी बात काली हिजड़ा से हुई। मै उसके घर गयी। सामने वाले कमरे में एक पलंग लगा था वह सामान्य से काफी ऊँचा था। मैंने जब इसके बारे में पूछा तब काली ने बताया कि यहाँ तो सभी मर्द ही है इसलिये ये सब ऐसा ही है। बगल के कमरे में पूनम हिजड़ा टीवी देख रही थी। काली पहले वार्ड पार्षद रह चुकी थी, सो उसने राजनीति बात शुरू की। हमने पूनम के बारे में पूछा तब पता चला की वह काली की शिष्य है। अंदर किचन में सीमा हिजड़ा रोटियां बना रही थी। काली हमें बता रही थी कि हमारे कोई नाते रिश्तेदार तो होते नहीं सो हमारे यहाँ गुरु- शिष्य परम्परा चलती है इसलिए हमारी पत्नीसमझो दोस्त समझो या बच्चे, सभी कुछ ये ही है। यानी काली कि शिष्य थी पूनम और पूनम की शिष्य सीमा। तीनो या साथ ही रहते थे। अब जब पूनम से बात होने लगी तब उसने बताया कि जब किसी गुरु हिजड़े कि मौत हो जाती है तब पत्नी कि तरह उसका शिष्य अपनी चूड़ी तोडती है और सफेद साडी भी पहनती है। बीच में काली बोल पड़ी थी कि किस तहर घर वाले उससे कटते है। यही नहीं पैसे कि जरुरत पड़ती है तब उससे मदद भी मांगते है। लेकिन किसी क सामने उसे पहचानने से भी इंकार कर देते है। हद तो तब हो गयी, जब सगी माँ भी उसे पहचानने से मुकर गयी। एक बेटा जब मर्डर करके भी आता है तब भी माँ उसे अपनाने स इंकार नहीं करती, फिर जब भगवन न हमें एषा बनाया है तब हमसे ऐसी दुरी क्यूँ ? काली सा सवाल बिलकुल जायज था। पर मेरे पास कोई जबाब नहीं था। दरअसल काली का सवाल सिर्फ मुझसे नहीं, पुरे समाज स था। ऐसा ही हाल कुछ पूनम का भी था, उसे भी अपने बहन कि शादी में आने स मन कर दिया गया था। बातो ही बातो में सीमा न कुछ म्यूजिक लगा दिया, पूनम न अपने आँचल स आंसू पोछे और जुट गयी नाचने में, फिर भी एक सवाल बाकी ही था आखिर हम भी इन्सान है.

Thursday, July 15, 2010

नूरजहाँ का दर्द



पिछले दिनों रिपोर्टिंग के दौरान ही एक ऐसी बुजुर्ग महिला से मिलने का मौका मिला कि कलेजा मुंह को आ गया। एक टूटी झोपड़ी, फर्श के नाम पर कीचड़ भरी जमीं, जहाँ जानवर को भी रहना नागवार गुजरे। हजारो मक्खियाँ भी जैसे उन्हें तंग करने पर आमादा थी। गंदे कपड़ो के बीच वह रहने को लाचार। राह चलते लोग उसे पागल कह रहे थे। मैंने झोपड़ी में जाकर जब पूछा तो पता चला की उसके बेटों ने उसे इस हालत में रहने पर मजबूर किया है। बातो ही बातों में पता चला की उसका नाम नूरजहाँ है। बेटे ने इलाज के नाम पर यहाँ लाया और छोड़ कर चला गया। उसने बताया की गाँव में जब भी वह मुझसे झगड़ता थी बोलता था की तुम्हे घर से बाहर उठा कर फेंक देंगे, लेकिन सच में ऐसा ही करेगा पता नहीं था, उसकी आँखों में आंसू थे। लेकिन आसपास वालों ने उसे सहारा दिया। हर दिन एक घर से खाना आ जाता है। कोई न कोई महिला कपडे भी आकर भी कभी कभी बदल देती है। फिर भी जिस हाल में वह रह रही है, शायद जानवर भी न रहे। क्यूंकि अब आखिरी पड़ाव है और अपनों ने भी साथ छोड़ दिया। सवाल यह है कि हाशिये पर रहने वालो इन बुजुर्गों की ऐसी हालत का जिम्मेदार कौन है, जवाब हमें ही तलाशना है।